Update 11

इलाक़े के ज़्यादातर दबंग लोग यहाँ के ठाकुर ही हैं…, और पॉल्टिकल ताक़तवर भी…, अब मुझे डर इस बात का सता रहा था कि अगर उन बदमाशों ने रूचि को किडनप करके इस इलाक़े में रखा है तो….,

कैसे ढूँढ पाउन्गा मे उस बेचारी मासूम को.., सोचकर ही मेरी रूह फ़ना हो गयी…, ना कोई इलाक़े की जानकारी ना कोई सुराग.., भूसे से सुई ढूँढने जैसा लग रहा था मुझे ये काम…!

जिस आदमी का नाम मेरे सामने आया भी है वो कोई ऐरा ग़ैरा नत्थू खेरा नही है.., सीधे सीधे उससे जाकर पूच्छने में भी ख़तरा था.., अगर वो इस मामले में इन्वॉल्व हुआ तो फिर रूचि की जान को भी ख़तरा हो सकता है…!

चंबल की चौकी से निकलकर यही सब सोचते हुए मे गाड़ी ड्राइव करते हुए उस कस्बे की तरफ बढ़ा चला जा रहा था.., तभी ललित ने मुझे टोका…!

भैईयाज़ी…

हुउंम्म.. मेने अपनी सोचों को विराम देते हुए बस इतना ही कहा..

ललित - कुच्छ पता चला उस गाड़ी के बारे में…?

मे – हां…, कुच्छ खास नही.., वो यहाँ के ज़मींदार ठाकुर शेरसिंघ की गाड़ी है.., पर लगता नही कि वो इस बारे में हमारी कोई मदद करेगा..?

ललित – क्यों ? जब उनकी गाड़ी है तो उन्हें पता तो होगा ही ना, कल और आज उनकी गाड़ी किस काम में यूज़ हो रही है….!

मेने अपनी संभावना उसके साथ शेर करते हुए कहा - अब्बल तो वो इस इलाक़े का बहुत बड़ा आदमी है.., एक तरह से वो यहाँ का राजा है.., हो सकता है इतने बड़े कारोबार में उसकी एक गाड़ी कहाँ और किस काम में लगी हुई है यही पता ना हो और उसका ड्राइवर ही किसी और के लिए इस तरह के काम कर रहा हो…?

ललित – मुझे नही लगता कि इतने बड़े दबंग आदमी का अदना सा ड्राइवर इस तरह का कोई जोखिम लेगा.., अगर उसे बिना बताए वो इस तरह के गैर क़ानूनी काम करेगा और किसी तरह उसके मालिक को पता चला या गाड़ी कहीं पकड़ में आगयि तो वो ये भी जानता होगा कि उसका अंजाम क्या हो सकता है…!

मे भी यही सोच रहा हूँ.., मेने ललित के तर्क का जबाब देते हुए कहा – दूसरी सूरत में मान लो शेरसिंघ ही ऐसे काम करवाता है तो उससे सीधे सीधे पुच्छने पर वो हाँ तो कहेगा नही और रूचि को इतनी आसानी से हमारे हवाले कर नही देगा…!

उल्टा ये होगा कि जब उसे पता चलेगा कि हम रूचि को ढूँढते हुए यहाँ तक आ पहुँचे हैं तो आतिशीघ्र या तो वो उसे कहीं दूसरी जगह शिफ्ट करवा देगा या …. ये सोच कर ही मेरी रूह काँप जाती है…, उसके लिए ख़तरा ना पैदा कर्दे कहीं…!

ललित – आप सही कह रहे हैं.., पर क्या आपका इस शेरसिंघ से कोई पुराना बैर है…???

मे - मेने तो उसका नाम ही आज पहली बार सुना है उस एसआई के मूह से…,

अब सोचने वाली बात ये है कि फिर उसने रूचि को इतनी दूर जाकर दूसरे स्टेट से किडनप क्यों कराया होगा..? कहीं इसके संबंध उस हरामखोर विक्रम राठी से तो नही…?

ये दिमाग़ में आते ही मेने कृष्णा भैया को फोन करने का सोचा.., शायद उन्होने उन बाप बेटे को उठा लिया हो.., ये सोचकर मेने अपना मोबाइल निकाला और जैसे ही उसे अनलॉक करना चाहा…,

ऊहह…शितत.. भेन्चोद इसकी बेतटरी को भी अभी ख़तम होना था…, साला जल्दी जल्दी में चारजर लाना भी भूल गया…, अब क्या करें.., तभी सामने कस्बा दिखाई देने लगा और 5 मिनिट में हम कस्बे के अंदर थे…!

कस्बे के बाहर गाड़ी रोक कर गाड़ी के अंदर बैठे हुए ही मे ललित के साथ आगे की प्लॅनिंग करने लगा.., फिर जाकर एक छोटे से रेस्टोरेंट में चाय नास्टा किया.., उसके बाद मेने ललित को शेरसिंघ के बारे में ख़ुफ़िया तरह से ज़्यादा से ज़्यादा खबर निकालने के लिए कस्बे में छोड़ दिया..!

मे भी अपनी तरह से पुच्छ ताच्छ में लग गया…, ललित चूँकि ढाबे पर काम कर चुका था..,

उसका तरह तरह के लोगों से किस किस तरह से इन्फर्मेशन मिल सकती है उसे ये सब अच्छे से पता था.., उपर से वो कम उम्र भी था तो लोगों को उसके उपर ज़्यादा शक़ भी नही होना था…!

ललित का मेरे साथ आना एक तरह से सार्थक सिद्ध हो रहा था.., लगभग दो घंटा बाद हम फिरसे उसी रेस्टोरेंट में मिले…!

ललित ने बताया.., वैसे तो शेरसिंघ के इस इल्लाके में बहुत से ठिकाने हैं.., जो लगभग सभी लोगों को पता है..,

लेकिन एक ठिकाना ऐसा भी है जो एकदम चंबल की घाटी के अंदर है.., जहाँ पोलीस या अन्य किसी प्रशासनिक अधिकारियों की नज़र नही पड़ती, यहाँ तक कि यहाँ के किसी आम आदमी को भी शायद ही पता हो उसके उस ठिकाने का…!

ये बात उसे एक भांगड़ी से पता चली जो खुद भी चोरी चकोरी जैसे छोटे मोटे ग़लत काम करता रहता है.., उस भांगड़ी के मुताबिक शेरसिंघ बहुत ही ख़तरनाक किस्म का व्यक्ति है..,

बताते हैं उसके पिता चंबल के मश-हूर दशु सम्राट मालखान सिंग के गिरोह में हुआ करते थे..,

मालखन सिंग के सरेंडर करने के वक़्त वो उनके साथ नही थे.., गिरोह के साथ गद्दारी करके लूट का बहुत सारा माल हड़प कर गये..,

आज उसी की बजह से ये इतना पॉवेरफ़ुल्ल हो गया है, आज इसके संबंध अंडरवर्ल्ड से भी बताए जाते हैं…!

यहाँ की जनता उससे बेहद ख़ौफ़ खाती है इसलिए कोई भी उसके खिलाफ कुच्छ भी बोलने की हिम्मत नही जुटा पाता…!

हमने एक बार घाटी में उतरने का ही फ़ैसला लिया.., दोपहर के खाने का समय हो रहा था, लाख मुशिबत सही पेट तो भरना ही था, पता नही अब घाटी से कब तक लौटना हो…!

इसलिए कस्बे के हिसाब से एक ठीक टाक से होटेल में बैठकर अच्छे से खाना खाया.., उसके बाद हमने अपनी गाड़ी चंबल की तरफ डाल दी.., जैसे ही घाटियों का एरिया शुरू हुआ मेने अपनी गाड़ी रोड से नीचे उतार दी…!

गाड़ी ज़्यादा अंदर तक नही जा सकती थी, मेरी सूडान मॉडेल रेनो कार वैसे भी बहुत नीची थी.., ज़रा ज़रा सी बमपर पर उसका चसिस टिक जाता है..,

अतः रोड से उतारकर कुच्छ घने से पेड़ों की छाया में कुच्छ इस तरह से खड़ी कर दी कि वो एक नज़र में रोड से किसी को नज़र ना आए और हम दोनो पैदल ही घाटी के खर्रों की खाक छानने निकल पड़े बिना किसी डाइरेक्षन और निशान देहि के…!

ललित के हिसाब से शेरसिंघ का घाटी में स्थित फार्म हाउस नुमा अड्डा रोड से करीब एक या धेड़ किमी अंदर होना चाहिए था.., खर्रों में 1 किमी की स्ट्रेट दूरी तय करना मतलब 3-4 किमी का रास्ता होता है…!

दर्रे की सतह रेतीली थी.., जिसमें पैर जमाकर तेज़ी से चलना भी मुश्किल होता है.., उपर से मार्च की गर्मी.., पसीने से बुरा हाल था.., वो तो अच्छा था कि कस्बे से चलते समय दो बॉटल पानी की ले ली थी.., जो अब इस गर्मी में काम आ रही थी.

लगभग 4-4:30 बजे हमें घने पेड़ों के बीच एक टूटा फूटा सा खंडरनुमा मकान मिला जिसे फार्म हाउस कहना तो बिल्कुल ही ग़लत होगा.., लेकिन इसके अलावा दूर दूर तक भी और कुच्छ दिख भी नही रहा था…!

हमने कुच्छ देर वहीं पेड़ों के नीचे उस मकान से कुच्छ दूर हटकर बैठने का सोचा और कुच्छ देर यहीं सुस्ता कर इधर उधर से उस मकान की टोह लेने का फ़ैसला किया……!!!!

सूखी सी घास और कठोरे ज़मीन पर बैठकर मेने कुच्छ देर अपनी आँखें बंद कर ली.., ललित थोड़ा सा एक खाई की तरफ जाकर पेशाब करने चला गया..!

मोबाइल की बेटरी ख़तम होने के कारण मे घर पर क्या हो रहा होगा ये पता भी नही कर पा रहा था.., पता नही ये खबर सुनकर भाभी और वाकी के घरवालों ने कैसा रिक्ट किया होगा…?

मोहिनी भाभी की लड़ली बेटी कैसी होगी कहाँ होगी.., यही सब सोच सोचकर उनके दिल पर क्या बीत रही होगी..?

अभी ललित को गये दो मिनिट ही हुए होंगे कि कानों में किसी गाड़ी के एंजिन की घरघराने की आवाज़ सुनाई दी…!

मे उसे ध्यान देकर सुन’ने की कोशिश कर ही रहा था कि तभी ललित दौड़ते हुए आया और मेरी बाजू पकड़ कर उठाते हुए बोला – भैईयाज़ी देखिए वही काली गाड़ी…!

मेने हड़बड़ा कर उठाते हुए कहा – कहाँ है.., किधर है..?

उसने एक टीले की आड़ से एक दिशा में उंगली उठाकर बताया.., वहाँ सच में वही काली स्कॉर्पियो आकर खड़ी हुई.., मे सोच में पड़ गया आख़िर जंगल में इतने अंदर तक ये गाड़ी आई कहाँ से होगी.., कोई रास्ता तो दिखा नही था हमें…!

हमने आनन फानन में तय किया कि इसमें आने वाले लोगों का पीछा करेंगे.., और कोशिश करेंगे इनके ज़रिए उस जगह तक पहुँचने की जहाँ इन्होने रूचि को रखा होगा…!

ये वोही दो लोग थे जो सुबह ललित ने इस गाड़ी में जाते हुए देखा था.., उन्हें उसने दूर से ही पहचान लिया था.., वो दोनो गाड़ी से उतरकर उसी मकान नुमा खंडहर की तरफ जा रहे थे..,

दोनो के हाथों में भारी भारी बाग थे.., जिनमें कुच्छ समान रहा होगा…!

वो दोनो लोग मकान के नज़दीक पहुँचने वाले थे.., दबे पाँव हम दोनो भी उनके पीच्चे पहुँच गये और झाड़ियों की आड़ लेते हुए एक निश्चित दूरी रख कर उनका पीछा करने लगे…!

ये मकान एक पुराने से परकोटे के अंदर बना हुआ था जिसकी उँचाई 5 फीट से ज़्यादा नही होगी.., करीब 5 एकर के अंदर एक साइड में 7-8 कमरे जैसे बने हुए थे खाली एंटों के जिनपर आज तक सेमेंट भी नही हुआ था..,

एन्टें भी झड झड कर दीवारों में झरोखे से बन चुके थे.., वो दोनो जैसे ही परकोटे के अंदर दाखिल हुए हमने पीछे की तरफ से परकोटे को लाँघ कर अंदर जाने का सोचा..,

हो सकता है सामने से हमें कोई देख ले.., सो जैसे ही वो परकोटे के सामने से अंदर दाखिल हुए हम भी दौड़कर पीछे गये और एक साथ ही बौंड्री लाँघकर अंदर पहुँच गये..,

यहाँ मेने ललित की फुर्ती को भी परखा.., वो भी एक ही जंप में अंदर आ गया था…!

मेने मुस्कुराकर उसकी पीठ पर हाथ रखा.., वो भी जबाब में बस मुस्करा दिया..!

फिर हमने उन दीवारों में बने झरोखों से अंदर झाँक कर देखने का विचार बनाया.., और सामने से दूसरे कमरे की दीवार के सहारे हम पहुँच गये…!

हमने अंदर झाँक कर देखा वो दोनो उन भारी बॅग्स को लादे मकान के दरवाजे से अंदर आए और एक तरफ को बनी गॅलरी की तरफ बढ़ गये.., करीब दो कमरों के बाद ही वो उस गॅलरी के एक मोड़ पर मूड गये और हमारी आँखों से ओझल हो गये…!

अब हमारे पास अंदर जाने के अलावा और कोई चारा नही था…!

अंदर जाकर मेने एक नज़र इधर उधर दीवारों पर डाली.., कहीं कोई ख़ुफ़िया कमरे बगैरह तो नही है.., और फिर हम भी उस गॅलरी की तरफ बढ़ गये..!

अंदर आते ही मुझे बड़ा अजीब लगा.., कहीं से कोई आवाज़ ही नही सुनाई दी.., चारों तरफ सन्नाटा पसरा हुआ था.., ऐसा कोई लक्षण भी नज़र नही आया जिससे ये लगे की यहाँ कोई रहता होगा या आता जाता भी होगा…!

गॅलरी समेत मकान के अंदर का फर्श भी उबड़-खाबड़ जैसा ही था, कोई भी ऐसा निशान नही था जो ये गवाही दे सके कि यहाँ कोई आता जाता भी होगा…!

बहरहाल हमारे पास आगे बढ़ने के अलावा और कोई चारा भी नही था.., सो दबे पाँव हम भी उस गॅलरी की तरफ बढ़ गये.., करीब 20 गज चलकर वो गॅलरी बाईं तरफ को मूड गयी..,

जैसे ही हम उस गॅलरी के मोड़ पर जाकर मुड़े.., सामने लगभग 10 गाज की दूरी पर ही उस गॅलरी का अंत हो गया.., सामने एक सपाट सीमेंट के प्लास्टर की दीवार थी..,

गॅलरी के दोनो तरफ ना कोई गाते और ना कोई ऐसा लक्षण जिससे लगे कि यहाँ कोई गुप्त दरवाजा भी हो सकता है…!!!

उन दो लोगों को ज़मीन निगल गयी.., आसमान खा गया.., हम दोनो ही एक दूसरे का मूह ताक रहे थे.., कुच्छ समझ नही आ रहा था की आख़िर वो गये तो कहाँ गये.., जबकि हमने उन्हें इस मोड़ से मुड़ते हुए भी देखा था…!

मेने दीवारों को टटोल टटोल कर तलाश करने की खूब कोशिश की कहीं कोई ऐसा सुराग मिले जिससे यहाँ किसी गुप्त दरवाजे के होने की निशानदेही पता चले…!

ललित के तो सब कुच्छ समझ से परे की बात थी.., वो तो कभी सपने में भी नही सोच सकता था कि इस तरह के कोई गुप्त रास्ते भी होते होंगे…?

मेने गॅलरी के अंतिम छोर से लेकर मुख्य दरवाजे तक अपनी तरह से अच्छे से चेक करने की पूरी कोशिश की हमें कोई तो सुराग मिले लेकिन कुच्छ हाथ नही लगा..,

आख़िरकार तक हारकर हम वापस उस मकान से बाहर आगये और पागलों की तरह उसके आस-पास चक्कर लगाने लगे इस आस में कि शायद कहीं से कुच्छ सुराग तो हाथ लगे…!

शाम घिरने लगी थी.., अब मेरे मन में चिंताओं के बादल उमड़-घूमड़ रहे थे.., सारा दिन गुजर गया.., मे अभी तक रूचि तक पहुँचने की बात तो दूर.., ये तक पता नही कर पाया था कि आख़िर वो है कहाँ…?

शाम का अंधेरा घिरने के साथ साथ ललित के चेहरे पर घबराहट साफ दिखाई दे रही थी.., वो बेचारा मेरे द्वारा थोड़ी सी सहानुभूति दिखाने पर ही मेरे साथ साथ खुद भी इस मुशिबत में फँस गया था…!

मेने उसके कंधे पर हाथ रख कर कहा – मुझे लगता है तुम्हें फिलहाल कस्बे में लौट जाना चाहिए.., वहाँ सोने का कुच्छ ना कुच्छ ठिकाना ज़रूर मिल जाएगा…!

और मे तो कहूँगा कि हो सके तो बस बगैरह पकड़कर अभी अपने पुराने ढाबे पर चले जाओ.., मे जब भी लौटूँगा तुम्हें साथ ज़रूर ले चलूँगा ये मेरा वादा रहा…, कहो तो सड़क तक मे तुम्हारे साथ चलूं…?

ललित – और आप यहाँ क्या करेंगे..? हमें तो सारे दिन में ये तक पता नही चला कि आपकी भतीजी कहाँ और किस हॉल में होगी.? मुझे नही लगता कि रात इस खौफनाक जगह पर बिताई जाए…और कोई लाभ हमें मिले…?

रूचि को याद करके मेरे दिल के अंदर से एक हुक सी उठी.., बोलते हुए मेरी आवाज़ भर्रा उठी.., रुँधे गले से मेने कहा – नही मेरे बच्चे.. जबतक में अपनी प्यारी गुड़िया को खोज नही लेता.., एक कदम पीछे रखने से बेहतर मरना पसंद करूँगा…!

चलो मे तुम्हें कस्बे तक ही छोड़ दूँगा.., वहाँ तुम्हें रात बिताने के लिए कोई माकूल जगह ज़रूर मिल जाएगी.., कोई धर्मशाला या मंदिर तो मिल ही जाएगा…!

ललित मेरा बाजू थामते हुए बोला – आप जैसे दयालु और नेक दिल इंशान जो सबका भला सोचकर चलता हो, जिसके सिर पर इतने सारे लोगों की ज़िम्मेदारी हो जब वो इतना बड़ा फ़ैसला ले सकता है.., तो मेरे आगे पीछे तो कोई भी नही है…!

अब मे भी आपके हर समय साथ ही रहूँगा.., चाहे इस काम में मुझे मौत ही क्यों ना नसीब हो., मेने फ़ौरन उसके मूह पर हाथ रख दिया.., उसको अपने अंक से लिपटाते हुए उसके बालों में हाथ फेर्कर कहा –

ऐसी अशुभ बातें नही बोलते पगले.., मे तो चाहता था कि तुम मेरी बजह से किसी मुशिबत में ना फन्सो.., अब तुम भी मेरे साथ ही रहना चाहते हो तो आओ अब यहाँ से चलते हैं…!

ललित – कहाँ..?

मे – अब यहाँ भटकते रहने से कोई लाभ नही होने वाला.., अंधेरा बढ़ता जा रहा है.., नदी के दर्रों के बीच कहीं सेफ सी जगह पर चलते हैं.., जब चाँद निकल आएगा तब इधर आकर एक दो चक्कर लगा देंगे…!

और फिर हम दोनो दुखी मन से धीरे धीरे चंबल के दर्रों से होते हुए नदी के किनारे की तरफ चल दिए….!!

करीब आधे घंटे में दर्रों को पार करके चंबल के किनारे तक हम जा पहुँचे., पूर्व में चाँद के निकलने से पहले की लालिमा फैलने लगी थी.., चंबल की कल कल करती लहरें कानों में पड़ने लगी थी..!

कोई और समय रहा होता तो नदी के किनारे के स्वच्छ और शांत वातावरण को एंजाय करते लेकिन इस समय ये शांत वातावरण भी किसी राक्षस के फैले मूह जैसा प्रतीत हो रहा था..!

हमने नदी के सॉफ पानी से अपने चेहरे से पूरे दिन की पसीने की चिपचिपाहट को धोया… और कुछ देर वहीं नदी के किनारे की ठंडी ठंडी रेत पर ही लेट गये…!

ललित रात भर सो नही पाया था.., सो पड़ते ही भूखे पेट होते हुए भी उसके खर्राटे गूंजने लगे.., लेकिन मेरी आँखों में नींद नही थी.., बस आँखें बंद किए अब तक के घण्तक्रम पर विचार करने लगा…!

रूचि का मासूम सा चेहरा उसका मेरे साथ चुहलबाज़ी करना ये सब सोच सोचकर मेरा मन खिन्न हो उठा.., जिंदगी में इतना मजबूर मेने अपने आपको कभी महसूस नही किया था जितना इस समय कर रहा था…!

कुच्छ देर बाद ही बंद आखों से मेने अनुभव किया कि वातावरण में अंधेरा कम होने लगा है.., मतलव चाँद निकल आया था…!

करने को कुच्छ था ही नही, ना जाने कितनी देर तक मे सोचों में गुम योन्हि पड़ा रहा, रात गहराती जा रही थी और साथ ही मेरे अंदर की खीज भी बढ़ती जा रही थी..,

अपनी बेबसी पर मेरा दिल खून के आँसू रो उठा और मेरी बंद आखों की कोरों से अपने आप ही मेरे गरम आँसू निकलने लगे…!

मेरे अंदर एक अजीब सी बैचानी का सैलाब सा उमड़ रहा था, किसी अनिष्ट की आशंका में दिल बुरी तरह घबरा रहा था..,

अपनी बैचैनि और घबराहट से निजात पाने के लिए मे उठकर बैठ गया, खड़े होकर नदी के किनारे किनारे इधर से उधर टहलने लगा…!

अभी मे थोड़ी दूर जाकर वापस आने के लिए मुड़ा ही था कि हवा का एक तेज झोंका मेरे शरीर को स्पर्श करता हुआ मेरे पास ही नदी के रेत में बवांडर का रूप अख्तियार करने लगा…!

चाँदनी पूरी तरह वातावरण में खिली हुई थी.., मे उस अप्रत्याशित घटनाक्रम को अपनी आँखों के सामने एकदम साफ साफ घटित होते देख पा रहा था.., वो बवांडर अब मेरे से दूर और दूर मिट्टी के उँचे उँचे टीलों की तरफ बढ़ने लगा…!

मे किसी सम्मोहन सी स्थिति में बँधा बस उस बवांडर को ही देखे जा रहा था.., कुच्छ देर बाद वो हवा और रेत का बवांडर दो टीलों के बीच के दर्रे में समा गया…!

अभी मे उस दिशा से अपनी नज़र हटाने ही वाला था कि उन दो टीलों के बीच एक तेज रोशनी सी चमकी मानो आसमानो से ज़मीन पर आकर बिजली तडकी हो.., क्षण मात्र के लिए उस जगह पर एक चाँदी जैसी सफेद और बहुत ही तेज रोशनी का प्रकाश फैल गया और शीघ्र ही विलुप्त भी हो गया…!

इस अप्रत्याशित घटित हुई घटना ने मेरे शरीर के रोंगटे खड़े कर दिए थे.., स्वतः ही मेरे शरीर ने एक तेज झूर-झूरी सी ली…, हालाँकि अब सब कुच्छ सामान्य हो चुका था..,

रेत में बने बवंडर को भी में पानी की तेज लहरों से बने हल्के से साइक्लोन का हिस्सा ही मान रहा था.., लेकिन उस तेज दूधिया रोशनी ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया…!

क्या ये मेरे लिए प्रकृति की तरफ से कोई शुभ या अशुभ का संकेत है..? क्या मुझे इस जगह से जल्दी से जल्दी चला जाना चाहिए…? शायद हां, कुच्छ तो है जो मेरी समझ से परे है…!

आख़िर में मेने वहाँ से अतिशीघ्र निकलने का ही फ़ैसला लिया.., दौड़कर मे ललित के पास गया.., झकझोर कर उसे उठाया और आधे जागे अवस्था में ही मेने उसका हाथ थामा और वहाँ से चल दिया…!

मेने तय किया कि हम उस रोशनी वाली जगह से विपरीत दिशा में जाएँगे लेकिन अनायास ही मेरे पैर उसी दिशा में चल पड़े जिधर वो बिजली जैसी रोशनी चमकी थी..,

मे समझ नही पा रहा था कि आख़िर मेरे कदम उसी दिशा में क्यों बढ़े चले जा रहे हैं…!

मेरे साथ घिसटता सा ललित मेरे पीछे था.., थोड़ी देर में ही उसकी नींद पूरी तरह से खुल चुकी थी.., उसने पूछा भी.. भैईयाज़ी क्या हुआ…? अब हम कहाँ जा रहे हैं….?

लेकिन मेरे पास उसके सवालों का कोई जबाब नही था.., मे जैसे किसी सम्मोहन में बँधा उस दिशा में बढ़ा चला जा रहा था…, हां अब मेने उसकी कलाई छोड़ दी थी…!

कुच्छ ही देर में हम उस जगह के बेहद करीब थे जहाँ वो रोशनी चमकी थी.., हम उन दो टीलों के बीच के रेतीले दर्रे में प्रवेश कर चुके थे..,

टीला गोलाकार था.., उसी के साथ रेत का वो दर्रा भी गोलाई लिए हुए था.., कुच्छ कदम आगे बढ़ते ही दर्रे की रेत दो दिशा में चली गयी.., माने दोनो टीलों के अंतिम सिरे पर जाकर वो उनकी गोलाई के साथ ही दो दिशा में मूड गयी थी…!

मे अपने ही आवेश में बायें तरफ के रेतीले रास्ते पर मूड गया.., तभी मेरे पीछे आ रहे ललित ने कहा – भैईयाज़ी.. वो देखिए.., वहाँ कोई है..? उसने मेरे विपरीत दिशा में जा रहे रास्ते की तरफ इशारा करते हुए कहा !

उसकी आवाज़ सुनकर मे वहीं ठिठक गया..और जिधर उसने इशारा किया था उस दिशा में देखने लगा.., चाँद की रोशनी में साफ दिख रहा था कि हमारे से करीब 15-20 कदम की दूरी पर कोई मानव आकृति लेटी हुई है…,

मेने कहा – शायद कोई घायल या बेहोश आदमी पड़ा है.., चलो चलकर देखते हैं.., शायद हम उसकी कोई मदद कर सकें…!

ललित – भैईयाज़ी ये चंबल की घाटी है.., कदम कदम पर ख़तरों का जाल बिच्छा होता है यहाँ.., चलो चुप चाप निकल चलते हैं यहाँ से.., खम्खा किसी और मुशिबत में फँस गये तो…?

एक बार को मुझे भी उसकी बात सही लगी.., लेकिन कुच्छ देर पहले घटित हुए चमत्कारिक घटनाक्रम ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया.., कि आख़िर ना चाहते हुए मे इस तरफ कैसे आगया.., ज़रूर इस व्यक्ति की सहायता के लिए ही प्रकृति ने मुझे कोई संकेत दिया होगा…!

ये सोचकर मेने कहा – जो भी हो.., अब इससे बड़ी और क्या मुशिबत आएगी जिससे हम गुजर रहे हैं.., क्या पता इसकी मदद करने से हमारी भी मुश्किल का कोई हल निकल आए..,

ये कहकर मे मन ही मन भगवान का स्मरण करके, हनुमान चालीसा को मन ही मन दोहराते हुए उस दिशा में बढ़ गया…!

कुच्छ फासला तय करते ही मेने अंदाज़ा लगा लिया कि सामने कोई लड़की बेहोश अवस्था में पड़ी हुई है.., उसे देखते ही मेरे दिल की धड़कनें अचानक से तेज हो गयी..,

मेरे कदम जैसे जैसे उस बेहोश जिस्म की तरफ बढ़ रहे थे.., दिल की धड़कन भी उसी अनुपात में बढ़ती जा रही थी…!

वो एक कमसिन उम्र लड़की ही थी.., जो औंधे मूह रेत पर पड़ी थी.., उसके कपड़े धूल मिट्टी से बेहद गंदे और जगह जगह से फटे हुए थे.., जहाँ से उसका गोरा बदन झाँक रहा था…!

उसके पास बैठकर मेने अपने तूफ़ानी रफ़्तार से धड़क रहे दिल से उस लड़की के कंधे पर हाथ रखा और थोड़ा सा ज़ोर देकर उसे सीधा किया…!

उसके सीधे होते ही मेरे मूह से एक चीख निकल गयी और मेने उसके बेहोश जिस्म को अपनी बाहों में भरकर अपने कलेजे से लगा लिया……!!!!

रूचि मेरी बच्ची…क्या हुआ तुझे..? उसके बेहोश जिस्म को कलेजे से लगाए हुए मे फुट फुट कर रो पड़ा.., मेरी फूल जैसी गुड़िया पता नही उसके साथ उन दरिंदों ने क्या किया होगा..? उसके फटे हुए कपड़े देख देख कर मुझे रोना आ रहा था..,

वो बेसूध मेरी छाती से लगी हुई थी..और मे रोए जेया रहा था, तभी मेरे कंधे पर ललित ने हाथ रखकर मेरी तंद्रा को भंग किया…!

यहाँ ज़्यादा देर ठहरना ठीक नही है भैईयाज़ी.., वो लोग इन्हें ढूँढते हुए कभी भी यहाँ पहुँच सकते हैं..!

मे उन हराम जादो का खून पी जाउन्गा.., आने दो मादरचोदो को.., एक-एक को चीर फाड़कर ना सूखा दिया तो मेरा नाम अंकुश नही… मेने भभक्ते हुए स्वर में कहा…!

मेरे इस रूप को देखकर एकबारगी को तो ललित भी डर गया.., लेकिन उसने हिम्मत करके मुझे समझाते हुए कहा –

मौके की नज़ाकत को समझिए साब जी.., मेरे गुस्से को देखकर ललित सहम सा गया और डर के मारे उसने मुझे इस बार भैईयाज़ी नही कहा.., वो आगे बोला – हमें अपनी चिंता नही.., लेकिन ज़रा सोचिए..,

ये दीदी बेहोश हैं.., इनके रहते हुए हम उनसे भिड़ भी नही सकते.., और फिर ना जाने वो कितने लोग हमारे सामने आ जायें क्या पता…?

आप तो पढ़े लिखे समझदार हैं.., ज़रा सोचिए.. बदला लेने के लिए हमें आगे भी बहुत वक़्त मिलेगा.., लेकिन पहले इन्हें सुरक्षित जगह पर पहुँचना बहुत ज़रूरी है…!

मे शायद रूचि की ये हालत देखकर गुस्से में अपना आपा खो बैठा था.., ललित ने वाकाई में बाजीब बात कही थी.., ये समय उन गुण्डों से भिड़ने का नही था.., किसी तरह से रूचि को सेफ्ली घर तक पहुँचाना बहुत ज़रूरी था…!

मेने मुड़कर अपने आँसुओं से भरी आँखों से ललित की तरफ देखा.., थॅंक यू ललित.., मेरे बच्चे तूने समय पर मेरी आँखें खोल दी.., वरना गुस्से में मे अँधा हो गया था..!

शायद भगवान ने ही तुझे मेरी मदद के लिए मेरे साथ भेजा है…!

ललित – ऐसा मत कहिए सहाब जी.., मे तो बस…ऐसे ही… मुझे जो सही लगा वो मेने आपको बोल दिया…!

मे – नही तुमने बिल्कुल सही कहा ! हमें जितनी जल्दी हो सके यहाँ से रूचि को लेकर निकल जाना चाहिए.., और ये.. तुम फिरसे मुझे सहाब जी क्यों कहने लगे..?

ललित झेन्पते हुए बोला – सॉरी..साब…भैईयाज़ी.., अब इन्हें गोद में उठा लीजिए… किसी तरह जल्द से जल्द हमें गाड़ी तक पहुँचना है वरना हम फँस भी सकते हैं…!

मे – हां ठीक है…चलो.., ये कहकर मेने रूचि को अपनी गोद में उठा लिया और अंदाज़े से सड़क की तरफ चल दिए…!

भले ही चाँदनी रात थी.., लेकिन इस बियावान जंगल में रास्ते का हमें कोई अनुमान नही लग रहा था बस दिशा का अनुमान लगाकर हम यूँ ही घनी झाड़ियों को चीरते हुए आगे बढ़ रहे थे…!

कभी समतल जगह तो कभी चढ़ाई., कभी काँटे तो कभी घनी झाड़ियाँ, जंगल पार करते हुए हम काफ़ी दूर निकल आए थे..,

काँटों और झाड़ियों में उलझ उलझ कर हमारे कपड़े भी जगह जगह से फट चुके थे.., लेकिन ये सब की परवाह करने का हमारे पास वक़्त नही था…!

इस सबके बावजूद भी हमने ये ज़रूर ध्यान में रखा कि उस मकाननुमा खंडहर से दूरी रख कर ही आगे बढ़ा जाए…!

चलते चलते हमें करीब दो घंटे हो गये.., लेकिन सड़क का कहीं नामो निशान नही दिख रहा था.., शायद हम रास्ता भटक गये थे.., मे तो बस रूचि को गोद में लिए हुए ललित के पीछे पीछे बढ़ा चला जा रहा था…!

जब एक पोज़िशन में थक जाता तो उसे अपने कंधे की तरफ कर लेता.., जब काफ़ी देर चलने के बाद भी हमें सड़क नही दिखी तो ललित ने ठिठक कर कहा –

लगता है हम रास्ता भटक गये हैं भैईयाज़ी.., आते वक़्त इतना समय तो नही लगा था हमें..,

दो ढाई घंटे से ज़्यादा हो गया हमें चलते चलते.., अभी तक सड़क का कोई नामो-निशान भी नही दिख रहा…!

मेने खड़े होकर रूचि की पोज़िशन चेंज करते हुए कहा – अब ये तुम जानो.., मे तो तुम्हारे कदमों पर ही चल रहा हूँ..,

एक काम करते हैं, कहीं समतल सी जगह देख कर कुच्छ देर सुस्ता लेते हैं.., मे भी इसके बेहोश जिस्म को लादे लादे थक गया हूँ..!​
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